Author: Taarini Kasbekar, Class VIII B
स्वर्ण के जंगल में रजत का बाघ
न जानता था रत्न-पत्ती की आग।
बचपन में सोने की त्वचा, समझो सवेरा—
नाम लिखा था मासूमियत के पन्ने पर सुनहरा।
कंचन का दिल और कंचन की काया,
मुक्त था हर चीज़ की मोह-माया।
तब महाबलवान समय चल आया
और अपने साथ आयु का बोझ लाया।
गई सारी सरलता, गई बेगुनाही,
गए दिन जब वह निष्पाप के नदी से पीता था पानी।
अब जीवन था जटिल और बची थी बस ग्लानि।
बेक़सूर बालक बाघ के स्वर्ण निकले,
और छोड़ा बस बेचैन बड़ा बाघ—रजत का।