Author: Ashmi Shailesh Narkar, Class X E
यह ज़रूर सत्य है कि सत्संगति मनुष्य को वैसे निखारती है जैसे चमकीले पत्थर को तराशकर उसे प्रखर हीरे का रूप दिया जाता है। इस पृष्ठभूमि में सत्संगति अनमोल एवं अतुलनीय है। ‘सत्संगति’ शब्द उपसर्ग ‘सत्’ तथा मूल शब्द ‘संगति’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ है – ‘अच्छा साथ’ अथवा ‘ऐसी संगति जो व्यक्ति पर सकारात्मक प्रभाव डालती है’|
माना जाता है कि व्यक्ति अपने परिवार को नहीं चुन सकता है, परंतु अपनी सोच-समझ से गुणी व्यक्तियों को परखकर उनसे मित्रता करना और उनसे संपर्क रखना तो चुन ही सकता है| मानव एक सामाजिक प्राणी है, जो सतत् जीवन के अनुभवों से सीख प्राप्त करता है| बचपन से बुढ़ापे तक वह निरंतर किसी-न-किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में रहता है| इसलिए उसके लिए यह स्वाभाविक है कि वह आस-पास के संबंधित व्यक्तियों के गुण-अवगुणों को समझकर अपने जीवन में अपना ले|
यदि मनुष्य सज्जनों की संगति में जीवन गुज़ारता है, तो वह सदा फुर्तीला तथा प्रफुल्लित रहता है, नई चीज़ों को जानने की जिज्ञासा रखता है| इन सद्गुणों का उचित उपयोग कर निरंतरता से अच्छे कार्यों को करना उसका स्वभाव बन ही जाता है|
इसका एक उदाहरण हमें अंगुलीमाल नामक भयानक डाकू से मिलता है जो गौतम बुद्ध की सत्संगति में नकारात्मक व्यक्ति से सकारात्मक व्यक्ति बन गया| जीवन में अनेक ऐसे क्षण होते हैं, जब व्यक्ति किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है, जैसे महाभारत युद्ध के पहले अर्जुन हो गए थे| तभी श्री कृष्ण जैसे मित्र की सत्संगति में रहकर उनसे सहायता लेकर उचित मार्ग चुनना सरल हो जाता है| कुसंगति विष की तरह मनुष्य पर बिल्कुल विपरीत प्रभाव डालती है और उसके सर्वोत्तम गुणों को नष्ट कर देती है| चाहे व्यक्ति का अपना व्यक्तित्व कितना भी अच्छा हो, उसपर संगति का असर पड़ता है| इसलिए सत्यवचन है – “जैसी संगति बैठिए, तैसा ही फल होत”|